बुधवार, 31 जनवरी 2018

लोहा-लाठी

बा-अदब, बा-मुलाहिजा होशियार
देश भर के लेखक-पत्रकार लिखना-बोलना छोड़ दें
छोड़ दें वो सच का साथ, संस्कृति का हाथ
हुक्काम का फरमान है, मानना होगा
नहीं माने तो लटकाए जाओगे सलीब पर
कूंच दिए जाओगे ईंट-पत्थरों से
भारत में उनका वाला 'राष्ट्रवादी कानून' लागू हो गया है
संविधान 'साहब' के कबाड़खाने में फेंक दिया गया है।

रविवार, 28 जनवरी 2018

सारा हिंदुस्तान जलेगा !

फकत वोट की खातिर सारा हिंदुस्तान जलेगा

कहीं चंदन मरेगा, कहीं पहलू खान मरेगा

मस्जिद गिरेगी कहीं, कहीं मंदिर ढहेगा

मरेगी इंसानियत, कहीं ईमान जलेगा

फकत वोट की खातिर सारा हिंदुस्तान जलेगा

कहीं चंदन मरेगा, कहीं पहलू खान मरेगा

गीता जलेगी कहीं, कहीं कुरान जलेगा

ममता जलेगी कहीं, कहीं सुहाग जलेगा

जल जाएंगे सपने, रिश्ते भी जलेंगे

कहीं बस्तियां जलेंगी, कहीं इंसान जलेगा

फकत वोट की खातिर सारा हिंदुस्तान जलेगा

कहीं चंदन मरेगा, कहीं पहलू खान मरेगा

खेत जलेंगे, कहीं खलिहान जलेगी

भगत-अशफाक की शहादत भी जलेगी

पुरखों का दिया हर निशान जलेगा

फकत वोट की खातिर सारा हिंदुस्तान जलेगा

कहीं चंदन मरेगा, कहीं पहलू खान मरेगा

कभी संसद भी जलेगी, कहीं संविधान जलेगा

बुनियाद जलेगी, कहीं मचान जलेगा

नदियां भी जलेंगी, दरिया भी जलेगा

मजहब भी जलेगा, कहीं धर्म जलेगा

कब्रें भी जलेंगी, कहीं श्मसान जलेगा

फकत वोट की खातिर सारा हिंदुस्तान जलेगा

कहीं चंदन मरेगा, कहीं पहलू खान मरेगा











सोमवार, 15 जनवरी 2018

किस ओर...

इंसान चला, किस ओर चला ?
जग के बंधन को तोड़ चला
सारे संस्कार को छोड़ चला
इंसान चला, किस ओर चला ?

यूं चला कि जैसे नर पिशाच
कर आदमखोर सा नंगा नाच
सारे जग को यह मोड़ चला
इंसान चला, किस ओर चला ?

शैतानों से कर कदम-ताल
हैवानों सा होकर बेहाल
इंसानीयत को छोड़ चला
इंसान चला, किस ओर चला ?

बिन कौड़ी मिलता प्रेम जहां
ममता स्नेह का खेल जहां
उस बस्ती को झकझोर चला
इंसान चला, किस ओर चला ?

सुख-चैन छोड़ ये नाग रूप
सौंदर्य त्याग, ऐसा कुरूप
ले लाशों का लाख-करोड़ चला
इंसान चला, किस ओर चला ?

नोचे अपने ही पूतों का
ललकार रहा यमदूतों को
यमराज को पीछे छोड़ चला
इंसान चला, किस ओर चला ?

ले कंधे पर अपने देवालय
मरघट में जाकर छोड़ चला
इंसान चला, किस ओर चला ?

यही तो मैंने चाहा था

यही तो मैंने चाहा था
तुम संबल बन हिम्मत दोगी
दुर्गम पथ को सरल करोगी
विघ्नों में साथ निभा मुझको
संग्राम सफल का अवसर दोगी
तुमसे जीवन के रंग भरूंगा
सपने यही सजाया था
बस यही तो मैंने चाहा था

पर तुमने तो विषाद भर दिया
जीना ही दुश्वार कर दिया
छोड़ लहरों के बीच अकेला
हाथों से पतवार हर लिया
बुझा दिया वो दीपक खुद ही
जिसे बन बाती स्वयं जलाया था
क्या यही तुमने चाहा था ?

वर्षा रानी

हुमड़-घुमड़ अम्बर तन गर्जन छोड़ वर्षा तू आ जा
प्यासा मन, व्याकुल चितवन शीतल तृप्त करा जा

झम-झम, हहर-हहर तू बरसो वर्षा रानी
जीवन के शत शुष्क भाव को कर दो पानी-पानी

रूखे-सूखे काल खंड में हरियाली तू भर दे
तोड़ बांध, सीमाएं, घट-पट चल स्वच्छंद तू कर में

गंगा की लहरें बन जा और यमुना की धारा
जीवन के शत-शत प्रवाह की छू ले घाट किनारा

वेग भला तेरा कौन रोके, किसमें इतना दम है
धरा, गगन, पर्वत के तन सब तेरे ही हमदम हैं

सागर की लहरों में लहरे तेरी विजय पताका
तेरे जैसा दानवीर कौन, कौन है ऐसा दाता

छोड़ गर्जना अब तो तू बस आ ही जा अब आ जा
प्यासा मन, व्याकुल चितवन शीतल तृप्त करा जा

रविवार, 14 जनवरी 2018

कोहरा

सूरज सांसें रोक रहा है
आसमान भी अनमना है
कोहरा घना है 
राहें ओझल-ओझल सी हैं
आहें बोझिल-बोझिल सी हैं
सिमट रहे अलाप मन के
कोहरा न जाने किसने जना है
कोहरा घना है
कोहरे में डूबे में दिग-दिगंत
इस कोहरे का आदि न अंत
सिमट रहे संबंध विस्तार
सच है, सच कहना मना है
कोहरा घना है

एक टीस है

अबकी बिछड़े तो शायद ही मिल पाएंगे
ये जीवन है व्यापार नहीं
इस पार नहीं, उस पार नहीं
जो डूब गया वो डूब गया
फिर धार नहीं, मंझधार नहीं
फिर यादों के कोनों-कोनों में
हम आएंगे और जाएंगे
अबकी बिछड़े तो शायद ही मिल पाएंगे 

जो छोटी-छोटी बातों की गंठरी से गांठ बना बैठे
कुछ निज स्वारथ के चक्कर में फिरते हैं ऐंठे-ऐंठे
कुछ अहंकार का चक्कर है, कुछ मूढ़ मति का दुष्प्रभाव
कुछ खुशफहमी ने मारा तो कुछ समझ फेर का है प्रभाव
यूं तो तिरते-तिरते एक दिन सब रेत फिसल जाएंगे
अबकी बिछड़े तो शायद ही मिल पाएंगे 

अबकी का बिछड़ना अलग राह पर चलना होगा
मंजिलें अलग होंगी, करवां बदलना होगा
फिर न कोई सिरा होगा, न छोर मिलेगा कोई
फिर न कोई ख़बर होगी न ओर मिलेगा कोई
अबकी फासले हमारे इस कदर बढ़ जाएंगे
अबकी बिछड़े तो शायद ही मिल पाएंगे 

मीत मेरे

मीत मेरे तुमसे खून का रिश्ता तो नहीं
ना ही कोई सामाजिक नाता है
लेकिन न जाने क्यों
जब कभी तुम नाराज हो जाते हो
तबीयत नासाज हो जाती है
यक़ीन मानो दिल का कोई रिश्ता है तुमसे
तब से जब से तुम जुड़े हो मुझसे

दूध-भात

चंदा मामा आएगादूध-भात लाएगा
चांदी के चम्मच से तुझको खिलाएगा
माई ने कह दियागुनगुनाते रहे हम
माड़भातनूून खाते रहे हम
माटी के चूल्हे पर तसला चढ़ाती थी
पानी खदकने पर खीर बताती थी
खीर के सपने सजाते रहे हम
माड़भातनून खाते रहे हम
माई ने आंचल को कंबल बताया था
माघ के पाला में उसको ओढ़ाया था
साड़ी को गद्दा समझाते रहे हम
माड़भातनून खाते रहे हम
आंखों के आंसू वो हमसे छुपाती थी
पानी में नून डाल हमको पिलाती थी
शर्बत समझ जीभ चटखाते रहे हम
माड़भातनून खाते रहे हम
माई ने माड़ पियाभात नहीं खाया
माई ने भात खाया नून नहीं मिलाया
माई का स्वाद जान इतराते रहे हम
माड़भातनून खाते रहे हम

वज्र जरूरी है

टूट पाएंगे न पत्थर प्यार से मनुहार से

तोड़ दो इनको अब वज्र के प्रहार से

कुरुक्षेत्र के रण में भीष्म प्रतिज्ञा तोड़ दो

सामने जितने शिखण्डी बांहें उनकी मोड़ दो

अब करो इनसे न तुम न्याय की याचना
पालते अपने हृदय में सत्ता की ये कामना
साध्य तेरे क़ैद हैं ऊंची इस दीवार में
ढाह दो इनकी हवेली वज्र के प्रहार से
ये स्वतंत्र चेतना के शत्रु समान है
ये बुलंदीतानाशाही देश का अपमान है
बरस सत्तर बीत गए ऐतबार केइंतजार के
तोड़ दो इनको अब वज्र के प्रहार से

सत्ता की भूख

हर सर पे खून का साया है
हर दर पे कातिल बैठा है
उसकी झक सफेद टोपी_दाढी
यह तिलक लगाए बैठा है
दोनों के हाथ में खंजर है
दोनों की जीभ खून से लथपथ
भोगी दोनो हैं राजपथ के
बिछता इनके आगे जनपथ
ये खून कौम का पीते हैं
खाते हैं नरमांस यही
सत्ता के भूखे कुत्ते हैं
करते सारे कुकांड यही

तब बादल बरसे थे

प्रियवर तब बादल बरसे थे
पहले मन में हुमड़ रहे थे
हृदय पटल पर घुमड़ रहे थे
अंखियन सम्मुख अंधेरा था
मीत मिलन को हम तरसे थे
प्रियवर तब बादल बरसे थे
बरसे थे बन करुण वेदना
जागृत करने तरुण चेतना
समृतिवन को सींच-सींच कर
बीते पल की पुनर्याचना
आंखों से झर-झर झरते थे
प्रियवर तब बादल बरसे थे
मह-मह मिट्टी महक रही थी
चह-चह चाहें चहक रही थीं
आहों का अविरल प्रवाह था
साधें सारी धधक रही थीं
पावक में पंछी झुलसे थे
प्रियवर तब बादल बरसे थे

प्रेमपथ

जैसे इलाहाबाद में होता है गंगा-यमुना का मिलन
वैसे मिले थे हम और तुुम कर्मयोग के संगम पर
मिले थे पूरे सैलाब के साथ, प्रवाह के साथ
लेकिन शांत थे हम गंगा-यमुना की तरह ही
फिर टकरातीं रहीं हमारी लहरें, मिलती रहीं धाराएं
कर्मपथ पर ही गढ़ लिया हमने एक प्रेमपथ भी
फिर बेहद व्यस्त दिन भी बीतने लगे थे हंसते-खेलते
और उबाऊ उनींदी रातें भी हो गईं थीं बेहतरीन
रास्ते में आते-जाते कभी हुआ ही नहीं धूप का एहसास
और ना ही जनवरी की रातों में कभी महसूस हुई ठिठरन
एक जोड़ी खाली जेब में एक जोड़ी खाली हाथ
और हंसते-बतियाने के लिए तुम्हारा साथ
बीतने लगे थे जीवन के सबसे खूबसूरत पल
और मिले भी तो थे हम यमुना के किनारे वाले शहर में
उस शहर में जहां हर आदमी दौड़ता है, भागता है
खुद से ही थक-हार कर हांफता है
वहीं मिले थे हम गंगा-यमुना की तरह
और फिर वहीं से बह निकले अलग-अलग दिशाओं के लिए
ठीक वैसे ही जैसे इलाहाबाद से अलग हो जातीं हैं गंगा और यमुना
दूर, एक दूसरे से बहुत दूर, समंदर तक अलग-अलग ही
लेकिन फिर मिलतीं हैं, समंदर में, बादलों में और बारिश के साथ नदियों में
शायद वैसे ही मिलना होगा किसी दिन हमारा भी
बादलों के पार, लहरों के पार, या फिर बूंदों के बीच
किसी कर्मपथ पर ही या फिर किसी प्रेमपथ पर ही

क्रांति गीत

सदियों से दाना माझी तुम्हारा खून नहीं खौला होगा
जब रोटी के बिना पत्नी बीमार हुई होगी तब भी
जब दवाई के बिना हालत बिगड़ी होगी तब भी
जब अस्पताल में कोई डॉक्टर नहीं मिला होगा तब भी
तब लाश ले जाने के लिए जेब में पैसे नहीं थे तब भी
जब लाश के लिए सरकारी गाड़ी नहीं मिली तब भी
जब पत्नी को गठरी में बांधकर उठाया होगा तब भी
दाना माझी इस पूरी प्रक्रिया में तुम ठंडे रहे होगे
दाना माझी तुम्हारा खून नहीं खौला होगा
सदियों से जमी बर्फ यू नहीं पिघला करती
सदियों पुरानी सोच यूं ही नहीं बदला करती
सदियों पुरानी व्यवस्था यूं ही नहीं हिला करती
सदियों से तु्म जैसों को भग्यवादी बनाए रखा गया
सदियों से तुम जैसों को पुनर्जन्म का पाठ पढ़ाया गया
सदियों से तुम जैसों के पूर्वजन्म के पाप गिनाए गए
सदियों से कालाहांडी का किस्सा नहीं बदला होगा
सदियों से दाना माझी तुम्हारा खून नहीं खौला होगा
कंधे तेरे लाश पड़ी थी भारत भाग्य विधाता की
या तो फिर वो लाश पड़ी थी भारत मां जयकारा की
यो तो फिर वो लाश पड़ी थी लोकतंत्र की माई की
या तो फिर वो लाश पड़ी थी संविधान की चौपाई की
काले अंग्रेजों को इसमें भी वोटबैंक मिला होगा
सदियों से दाना माझी तुम्हारा खून नहीं खौला होगा
लोकतंत्र की लाश भी एक दिन ऐसे ही ढोई जाएगी
सत्ता और सियासत किसी गठरी में अकुलाएगी
दाना माझी बाग़ी होकर तेरी मुट्ठी जिस दिन तन जाएगी
तेरी जीवन संगिनी उसी दिन मोक्षधाम को जाएगी

वो क़ातिल हैं

वो जो क़ातिल हैं
लाशों पर लाश बिछाते हैं
वो जो वहशी हैं
बस्ती को राख बनाते हैं
वो जो शातिर हैं
दंगाई बिसात बिछाते हैं
वो जो ज़ालिम हैं
अफवाहों के जाल फैलाते हैं
वो टोपी-दाढ़ी, लाठी-डंडों की भीड़ों में
वो राष्ट्र-गाय, धर्म-भजन के नीड़ों में
वो तन कर खड़े हैं आज मुल्क की छाती पर
वो तन के खड़े हैं गांधी-आज़ाद की थाती पर
वो भारत माता के आंचल को फाड़ रहे हैं
वो गोद में मां की संतानों की लाशें डाल रहे हैं
वो मुल्क ही नहीं, ईमान-धर्म का दुश्मन हैं
वो इंसान ही नहीं, भगवान-खुदा का दुश्मन हैं
वो दुश्मन हैं हंसती भारत माता के
वो दुश्मन हैं नस्लों के भाग्य विधाता के
उनको तो किसी दिन लाज-शरम न आएगी
ऐसे भक्तों से भारत मां अकुलाएगी
ये औलाद फिरंगी के, इनको सिंहासन प्यारा है
फूट डालो और राज करो ही इनका प्यारा नारा है

तय करो

तय करो, भविष्य का हिंदुस्तान कैसा चाहिए
हंसती हुई भारत माता या श्मसान जैसा चाहिए।
जलती लाशों की गंध या महक हो गुलाब की
राख-राख बस्तियां या मुस्कान हर जनाब की
गली-गली खून या गंगा-जमुनी तान जैसा चाहिए
तय करो, भविष्य का हिंदुस्तान कैसा चाहिए।
तय करो कि वक्त इंतज़ार करता है नहीं
तय करो कि मुल्क कंठहार बनता है नहीं
मां की गोद में पड़ीं हों लाश निज संतान की
मां की आंचल फाड़ते हों संतान हिंदुस्तान की
तय करो कि है ज़रुरी मुस्कान या श्मसान अब
तय करो कि है जरुरी दंगा या अमान अब
तय करो की मां की गोद में भरोगे क्या अब तुम
तय करो कि मुल्क में माहौल रचोगे क्या अब तुम
तय करो कि मजहबी ईमान कैसा चाहिए
तय करो, भविष्य का हिंदुस्तान कैसा चाहिए।

सत्ता आग लगाती है

अनुभव की स्याही से वक्त के पन्ने पर
कितना कुछ लिखते हैं हम और आप
हम शब्दों से नाप लेते हैं पेट की गहराई
भावों से माप लेते हैं रोटी का भूगोल
और वो हमें घुमाते रहते हैं गोल-गोल

गोल-गोल घुमाने के लिए भी बनती है रणनीति
जब एेंठती है हमारी अंतड़ी तो सिखाते हैं धर्मनीति
जब फांकाकशी मांगती है विकास का हिसाब
तो वो थमाते हैं हमें राष्ट्रभक्ति की गोटी
उन्हें मालूम है मौत के बाद वाला किस्सा
सबसे ज्यादा मारक यंत्र है, सबसे बड़ा झूठ है
उस लोक के नाम पर इस लोक में सब ठूंठ है
नारों वाला राष्ट्रवाद एक सियासी मवाद है
असली मुद्दों से बचने के लिए ही सारे फसाद हैंं
भूख से मरते बच्चे, जवानों, बूढ़ों, किसानों के क़िस्से मत खोल
राष्ट्रभक्त बनना है तो भारत माता की जय बोल
बोल की भूख का सवाल राष्ट्रद्रोह कहलाता है
बोल कि सरोकार का सवाल सत्ता-समाज को हिलाता है
हिलती सत्ता अच्छी नहीं होती,लिहाजा क़ानून डंडा चलाता है
फौज-तोपों वाली सत्ता नारों से हिल जाती है
फिर वो राष्ट्र का प्रेम भाव तोप में लगाती है
तोप से निकले राष्ट्रवादी गोले दिमाग पर बरसाती है
सत्ता ऐसे ही देश में आग लगाती है। 

फासीवाद के विरुद्ध

वो बता रहे हैं, वो क्या करेंगे किसी ने उनके खिलाफ बोला तो
बच्चों-बूढ़ों, मजलूमों की आवाज़ से डरे वो लोग जता रहे हैं कि वो निडर हैं
उन्हें मंजूर नहीं कोई भी दूसरी विचारधारा
उनकी विचारधारा की पौध के सूखने का डर है
उन्हें मालूम है बड़ी पोपली है उनकी ज़मीन
वो डरते हैं उनसे जिनके पेट खाली हैं
वो डरते हैं उनसे जिनकी ज़ुबान है
वो डरते हैं हक़ मांगती हर आवाज से
उन्हें चाहिए पाषाण शांति, पत्थर सा खड़ा देश
जो न चले, न बोले, न सुने, न तोले
वो जब चाहें छेनी-हथौड़ी से उसे तोड़ दें, फोड़ दें
इसीलिए इंसानों की हक़मारी कर वो पिलाते हैं पत्थरों को दूध
वो इंसानों को मानते हैं राष्ट्रीय जानवर, जानवर को मानते हैं राष्ट्रीय पशु

जीवंत सच्चाई

आज जब जीवंत सच्चाइयां कविता बनकर
दस्तक दे रही हैं हमारी खामोश जीवन मूल्यों को
तो हम देख रहे हैं त्रासद एवं बिलबिलाते लोगों को
लहूलुहान न सिर्फ स्वप्रगति की चाह में
बल्कि कांटे बोते दूसरों की राह में,
भागमभागी-आपाधापी के इस दौर में
फुर्सत कहां दिल के रिश्तों को जोड़ने की
अपने भाव-संवेग, दुख-दर्द किसी से बांटने की,
दौड़ने-भागने की आपाधापी में
हम घोल रहे हैं ज़हर, पनपा रहे हैं सुख नाशक रोगों को
आज जब जीवंत सच्चाइयां कविता बनकर
दस्तक दे रही हैं हमारी खामोश जीवन मूल्यों को
हम देख रहे हैं त्रासद एवं बिलबिलाते लोगों को

सीधी बात

न मोहब्बत के दिन हैं येन विरहा की रात है
मैं तुम्हे याद करता हूं
सीधी सी बात है
ना नसों पर ब्लेड चलती है
ना ही शिकवे-शिकायत है
मैं तुम्हे याद करता हूं
सीधी सी बात है

उनींदी रात को जब भी
अकेलेपन ने मुझे घेरा
दिन के उजाले में मतलबी भीड़ का डेरा
चला गया कोई भी नस्तर दिल में चुभाकर
जाना यही हक़ीक़त
नहीं इसमें जज्बात है
मैं तुम्हे याद करता हूं
सीधी सी बात है
मुझे याद है वो दिन
जब मिले थे हम और तुम
न सीधा जान पाए थे
न हम पहचान पाए थे
फिर सिलसिला कुछ यूं ही चल पड़ा था शायद
बस इसी तरह वो दिन मुझको याद है
मैं तुम्हे याद करता हूं
सीधी सी बात है
तुम्हें भी याद हैं वो दिन
तुम्हें भी मैं याद आता हूं
बस इसी भरोसे को ओढ़ता-बिछाता हूं
यकीं ये भी है मुझको
तुम्हें शिकवा नहीं मुझसे
बस इतनी सी बात है
मैं तुम्हें याद करता हूं
सीधी सी बात है

संघवाद के खिलाफ

गर तुम हिटलर के नाती हो, हम भी बापू के पोते हैं
आज़ाद चंद्रशेखर की आवाज़, भगत सिंह की थाती हैं।
सुन ले गोडसे की पीढ़ी तुम, हम राम-बुद्ध के वंशज हैं
तुम बिन तुगलक गर बनते हो, हम कौटिल्य शिखा लहराते हैं
तेरी हर साज़िश को प्रण से मिट्टी में हम मिलाते हैं।
गर तुम छप्पन ईंची छाती हो, हम भी हिंदुस्तानी माटी हैं
हम गंगा-जमुना की लहरें, गीता-कुरान से पोथे हैं
गर तुम हिटलर के नाती हो, हम भी बापू के पोते हैं।

आपकी बात

लोकतंत्र है ये अपना जनतंत्र है
खास आदमी से आम तक स्वतंत्र है
देश आम आदमी का बचा नहीं
सत्ता आम आदमी ने रचा नहीं
खास लोग, खास पूंजीतंत्र गढ़ रहे
लोकतंत्र को हवेलियों में मढ़ रहे
आओ देश को बचाने की बात हो
लोकतंत्र आम आदमी के हाथ हो
आम आदमी की बात हो
आम आदमी के साथ हो
वीर हमीद की कुर्बानी की कसम
आज़ाद, भगत सिंह की रवानी की कसम
है वतन का नाज तो नाज सबका है
बापू के सपनों का स्वराज सबका है
अंबेडकर के आदर्शों का समाज हो
आम आदमी की बात हो
आम आदमी के साथ हो
लोहिया, लिमये हर दिल में बसें
चारु-कानू मिलकर अब समाज को रचें
मदर टेरेसा, बाबा आम्टे का देश है
संत विनोबा, जय प्रकाश का संदेश है
भूख-गरीबी फिर कल की बात हो
धाक हो हमारी और साख हो
आम आदमी की बात हो
आम आदमी के साथ हो

होरी की होली

होरी हारा पेट से, हल्कू खाली पेट
फाग तो है गांव में, फागुन खेते खेत
फाग-फाग हो गांव में जिनके घर में माल
सूखे-पिचके गाल पर का कर लिहें गुलाल
माल पूए की महक है दूर किसी के आंगन
होरी को आंगन नहीं, ना कहुं जात है मांगन
हल्कू की धोती में पड़ गई फिर नई है गांठ
जिनके घर हो मालपूआ वो मनाए फाग
हल्कू-होरी के लिए रंग लगे अब आग
खाली जेब वालों के लिए होली है दुख राग

संघवाद के खिलाफ़

वो बता रहे हैं, वो क्या करेंगे किसी ने उनके खिलाफ बोला तो
बच्चों-बूढ़ों, मजलूमों की आवाज़ से डरे वो लोग जता रहे हैं कि वो निडर हैं
उन्हें मंजूर नहीं कोई भी दूसरी विचारधारा
उनकी विचारधारा की पौध के सूखने का डर है
उन्हें मालूम है बड़ी पोपली है उनकी ज़मीन
वो डरते हैं उनसे जिनके पेट खाली हैं
वो डरते हैं उनसे जिनकी ज़ुबान है
वो डरते हैं हक़ मांगती हर आवाज से
उन्हें चाहिए पाषाण शांति, पत्थर सा खड़ा देश
जो न चले, न बोले, न सुने, न तोले
वो जब चाहें छेनी-हथौड़ी से उसे तोड़ दें, फोड़ दें
इसीलिए इंसानों की हक़मारी कर वो पिलाते हैं पत्थरों को दूध
वो इंसानों को मानते हैं राष्ट्रीय जानवर, जानवर को मानते हैं राष्ट्रीय पशु

वक्त का तकाजा

वक़्त का तक़ाज़ा हैचलना ही पड़ेगा
जो नाग फन लहरा रहेकुचलना ही पड़ेगा
न्याय की देवीअब गुमान मत कर
तेरी आंखों की पट्टी को अब उतरना ही पड़ेगा
संसद के सत्ताधीशकुनबों के मठाधीश
चाल-चरित्रचेहरा बदलना ही पड़ेगा
हर रोटी की गोटीजो हैं सेट कर रहे
मुर्दों की भांति उन्हें जलना ही पड़ेगा
हर वोट के लिए नोटहर जन के लिए धन
संभलो ईमान को बदलना ही पड़ेगा
फूंक डालो महापंचायत कोआग लगा दो
एक रोटी का जुगाड़ जो कर नहीं पाया
उस पूरे सिस्टम को निगलना ही पड़ेगा
उठो गाण्डीव संभाल लोहे भारत के लाड़लों
कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अब लड़ना ही पड़ेगा
वक्त का तकाजा हैचलना ही पड़ेगा
जो नाग फन लहरा रहेकुचलना ही पड़ेगा

सत्ता

सत्ता तुम किस कदर
घृणास्पद होते गए..
किस कदर तुमने बदला
अपना रूप
विद्रूपताओं से जनमातुम्हारा अत्याचार
कहां-कहां नहीं बरपा....
तुम्हारे लिए सब
गिराते रहे मंदिरों कोमस्जिदों को
करवाते रहे दंगे लूटते रहे अस्मत
और तुम....
हंसते रहे विवश होकर......
सत्ता सच बताना..
विद्रूपताओं पर अट्ट्हास करना
विरुपता का परिचायक नहीं क्या..
क्या कुछ और होता है
हिंस्र जानवर होना.....
सत्ता क्या ये सच नहीं
तुम एक मात्र कारण हो
अब तक के समस्त संघर्षों का...
तुम्हारे लिए ही क्या नहीं हुई
दुनिया की सारी जघन्यतम नरसंहारें.....
सत्ता तुम देखना

एक दिन तुम हो जाओगे इतने भयावह

कि लोग चाहेंगे मुक्ती तुमसे

चाहेंगे उपर उठना तुमसे भी

फिर टूटेगा तुम्हारा दर्प,

फिर टूटेगा तुम्हारा अहम

और मिट कर रह जाएगा तुम्हारा अस्तित्व

राजा राष्ट्रवाद पगुराता है

जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता है
भूखी जनता रोटी मांगे
राजा राष्ट्रवाद पगुराता है
कहे विदर्भ जब पानी-पानी
जब मराठवाड़े की सूखी जवानी
भूखे बुंदेलों का रोना
राष्ट्रद्रोह कहलाता है
राजा राष्ट्रवाद पगुराता है
जंगल छीनी, बेघर कबूतरा
जल-ज़मीन से वंचित बिरसा
झारखंड का पाहन रोता है, चिल्लाता है
राजा राष्ट्रवाद पगुराता है
छत्तीसगढ़ का निजाम बेरहम
आदिवासियों पर जुल्म-ओ-सितम
आंध्र का सलवा-जुडूम हत्यारा
असम-बंग को दंगों ने मारा
असहमत हर सवाल पाक परस्त कहलाता है
राजा राष्ट्रवाद पगुराता है

तन्हा

 वो जो किसी दिन तुम्हें चुभा होगा  देखना  गौर से  वो टूटा  होगा बिखर जाने का लिए मलाल वो भरी महफ़िल में भी तन्हा होगा।