ये समझ-समझ का ही फेर है
जो समझ गया वो सुलझ गया
जिन आंखों में उतरा था तू
उन्हीं आंखों से अब उतर गया
ये...
मेरे सामने वो जो मोड़ था
ले जाता वो तुझ ओर था
मुझे आंधियों ने बचा लिया
मैं तिनका सा फिर संभल गया
ये...
मेरे सामने एक नदी जो थी
गंगा ना सही बहती तो थी-2
एक बूंद मेरी प्यास थी
बस घाट की जो तलाश थी
जो आस थी वो डूब गई
मैं किनारों से ही फिसल गया
ये...
मुझे प्यास थी मैं झुका नहीं
वो बहाव था वो रुका नहीं
ये तो लहरों का ही खेल है
कोई पार है कोई बह गया
ये समझ-समझ का ही फेर है
जो समझ गया वो सुलझ गया
मैं फूल था वो सुगंध था
मैं राग था वो छंद था
जो बिखर गए वो पराग थे
जो बचा रहा वो सवंर गया
ये समझ-समझ का ही फेर है
जो समझ गया वो सुलझ गया