गुरुवार, 2 मई 2019

दो आंखें शिद्दत वाली

हर खुली खिड़की में झांको
तो भी चांद नहीं दिखता
बस एक खिड़की खुलते ही
पूरा चांद वहीं दिखता

घर-घर, छत-छत गली-गली में
कोई आता-जाता है
बस एक छत है जिस पर अक्सर
चांद उतर कर आता है

मन में बसी एक मूरत हो तो
कोई सूरत क्या कर ले
जब छत पर चांद उतर आए तो
आसमान भी क्या कर ले

लेकिन चांद का इतराना ये
तब तक ही कायम रहता है
कोई शिद्दत से छत पर
हर रोज निहारा करता है

दो आंखें शिद्दत वाली जब
बिछुड़न के आंसू रोती हैं
फिर कोई छत ना रौशन होती
फिर कोई चांद नहीं रहता

हर खुली खिड़की में झांको
तो भी चांद नहीं दिखता
बस एक खिड़की खुलते ही
पूरा चांद वहीं दिखता

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

तन्हा

 वो जो किसी दिन तुम्हें चुभा होगा  देखना  गौर से  वो टूटा  होगा बिखर जाने का लिए मलाल वो भरी महफ़िल में भी तन्हा होगा।