हर खुली खिड़की में झांको
तो भी चांद नहीं दिखता
बस एक खिड़की खुलते ही
पूरा चांद वहीं दिखता
घर-घर, छत-छत गली-गली में
कोई आता-जाता है
बस एक छत है जिस पर अक्सर
चांद उतर कर आता है
मन में बसी एक मूरत हो तो
कोई सूरत क्या कर ले
जब छत पर चांद उतर आए तो
आसमान भी क्या कर ले
लेकिन चांद का इतराना ये
तब तक ही कायम रहता है
कोई शिद्दत से छत पर
हर रोज निहारा करता है
दो आंखें शिद्दत वाली जब
बिछुड़न के आंसू रोती हैं
फिर कोई छत ना रौशन होती
फिर कोई चांद नहीं रहता
हर खुली खिड़की में झांको
तो भी चांद नहीं दिखता
बस एक खिड़की खुलते ही
पूरा चांद वहीं दिखता
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