दहक रही ये आग है
ये उठ रहा गुबार है
वतन के सीने पर सजी
चिताओं की कतार है
अमर शहीद दहक उठे
दहक उठी हर आंख है
दहकते सीनों से उठी
अंगार सी आवाज़ है
अनाथ मासूमों की चीख
हिंद को झकझोरेगी
बेवा बहनों की दहाड़
बेड़ियां अब तोड़ेगी
जो पूत खो चुकी हैं वो
हिंद की अब मां बनीं
वो आंखें बूढ़े बाप की
वतन की अब जां बनीं
जो लिपट गए तिरंगे में
वो नाज और साज हैं
ताबूत में जो हैं पड़े
वही तो कल और आज हैं
दहक रही ये आग है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें