चल साधो उस गांव जहां अब भी अंधेरा है
उस आंगन में जिसको अब भी भूख ने घेरा है
सूरज रोज़ निकलता होता रोज उजाला है
लेकिन इस घर का दिन भी होता काला है।
काली अंधियारी छाई है
आंगन का चूल्हा उदास है
पेट धंसा, हड्डी दिखती है
और उदासी का जहां रहता डेरा है
चल साधो उस गांव जहां अब भी अंधेरा है।
चल साधो कि वहां तुम्हें चलना ही होगा
देख सही तो क्या उसने अब तक है भोगा
चल साधो कि खोज छुपा कहां सवेरा है
चल साधो उस गांव जहां अब भी अंधेरा है।
बाभन, बनिया, दलित, मुसलमां
सिख, इसाई, बौद्ध, जैनिया
है कौन यहां काले दुख ने
जिसको न घेरा है
चल साधो उस गांव जहां अब भी अंधेरा है।
कि तुझको चलता देख भरोसा
तुझसे ही सबको है आशा
तेरी आंखों में ही सपनों का बसेरा है
चल साधो उस गांव जहां अब भी अंधेरा है
अब भी अंधेरा है।