गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

जहां युद्ध है वहां प्रेम है


तुम दीपशिखा सी शांत भाव में लीन
मैं लपटों पर नाग सा फन लहराता
तुम अधरों पर गंगा जल की धारा
मैं चट्टानों पर ज्वाला धधकाता
तुम विधि से सम्मत एक शालीन सी काया
मैं विधि विरुद्ध हर एक विधि अपनाता
ये विभेद प्रकृति का परम नियम है
जहां दिवस है वहीं खड़ा भी तम है।

तुम उपवन में एक कली मुस्काती
मैं कंटक की राह रोज़ अपनाता
तुम उपवन में उड़ती तितली सी हो
मैं वन-वन घूम धूप-घाम अपनाता
तुम चांद सी शीतलता हो बरसाती
मैं अंगारों पर ही रहा राह बनाता
ये विभेद प्रकृति का परम नियम है
ऊपर से जो कठोर अंदर से वही नरम है।

जो सूरज का ताप नहीं सह पाता
वही चांदनी का सुख नहीं ले पाता
जो दुर्गम पथ से हार मान लेता है
वो फिर हारे को हरिनाम होता है
कठिन राह का पथिक हलाहल पीता
जो लड़ा समर में वही हारा या जीता
अग्नि में जो तपता कनक सदृश है
वही जग के कपाल पर शोभित है
ये विभेद प्रकृति का परम नियम है
जहां अग्नि है वहीं तेज पवन है 

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तन्हा

 वो जो किसी दिन तुम्हें चुभा होगा  देखना  गौर से  वो टूटा  होगा बिखर जाने का लिए मलाल वो भरी महफ़िल में भी तन्हा होगा।