तुम दीपशिखा सी शांत भाव
में लीन
मैं लपटों पर नाग सा फन
लहराता
तुम अधरों पर गंगा जल की
धारा
मैं चट्टानों पर ज्वाला
धधकाता
तुम विधि से सम्मत एक शालीन
सी काया
मैं विधि विरुद्ध हर एक
विधि अपनाता
ये विभेद प्रकृति का परम
नियम है
जहां दिवस है वहीं खड़ा भी
तम है।
तुम उपवन में एक कली
मुस्काती
मैं कंटक की राह रोज़
अपनाता
तुम उपवन में उड़ती तितली
सी हो
मैं वन-वन घूम धूप-घाम
अपनाता
तुम चांद सी शीतलता हो बरसाती
मैं अंगारों पर ही रहा राह
बनाता
ये विभेद प्रकृति का परम
नियम है
ऊपर से जो कठोर अंदर से वही नरम है।
जो सूरज का ताप नहीं सह
पाता
वही चांदनी का सुख नहीं ले
पाता
जो दुर्गम पथ से हार मान
लेता है
वो फिर हारे को हरिनाम होता
है
कठिन राह का पथिक हलाहल
पीता
जो लड़ा समर में वही हारा
या जीता
अग्नि में जो तपता कनक सदृश
है
वही जग के कपाल पर शोभित है
ये विभेद प्रकृति का परम
नियम है
जहां अग्नि है वहीं तेज पवन
है ।
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