रविवार, 14 अक्टूबर 2018

मिसरा


इन आंखों में दरिया सा एक ख्वाब उतरा है
फिर इस झील में देखो एक चांद उतरा है
बिछड़े इश्क की इन्हीं नाउम्मीद राहों में
कहीं शीरीं उतरी है कहीं फरहाद उतरा है

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

दंश लावण्या

जैसे मां का पेट फाड़ कर निकलता है शिशु ऑक्टोपस
ठीक वैसे ही विस्मृतियों का पेट फाड़कर निकलती हैं तुम्हारी यादें
चट्टानों को तोड़कर निकलती धाराओं की तरह
पसरती हैं स्मृतियां क्षण-क्षण और कण-कण में
जैसे कठफोड़वा खोखला करता जाता है दरख्त को
ठीक वैसे ही रोज खोखला होता है मेरा अस्तित्व

जब दीमक चाट रहे होते हैं मेरे होने के भ्रम को
और खोखला कर रहे होते हैं खुद को भूल जाने वाले श्रम को
जब उम्मीदों को रौशन करता रोज उगता है सूरज
और शाम को तमाम उम्मीदों को समेट डूब जाता है सूरज
या फिर भोर का शुकवा तारा, इनमें कोई भी नहीं तोड़ पाता है
मन के एक छोर पर धक्कमपेल कर रहीं स्मृतियों के क्रम को

फिर चाय की चुस्की हो या अखबार की खुश्की
नीम की कड़वाहट हो या महुआ की मिठास
कहीं दूर भागना चाहता हूं लावण्या के हर अंश से
और हर कदम गिर जाता हूं उसी लावण्या के दंश से

नोट: लावण्या को आम तौर पर ब्रह्मी कहते हैं। इसका उपयोग स्मृति शक्ति बढ़ाने के लिए किया जाता है



तन्हा

 वो जो किसी दिन तुम्हें चुभा होगा  देखना  गौर से  वो टूटा  होगा बिखर जाने का लिए मलाल वो भरी महफ़िल में भी तन्हा होगा।