जैसे मां का पेट फाड़ कर निकलता है शिशु ऑक्टोपस
ठीक वैसे ही विस्मृतियों का पेट फाड़कर निकलती हैं तुम्हारी यादें
चट्टानों को तोड़कर निकलती धाराओं की तरह
पसरती हैं स्मृतियां क्षण-क्षण और कण-कण में
जैसे कठफोड़वा खोखला करता जाता है दरख्त को
ठीक वैसे ही रोज खोखला होता है मेरा अस्तित्व
जब दीमक चाट रहे होते हैं मेरे होने के भ्रम को
और खोखला कर रहे होते हैं खुद को भूल जाने वाले श्रम को
जब उम्मीदों को रौशन करता रोज उगता है सूरज
और शाम को तमाम उम्मीदों को समेट डूब जाता है सूरज
या फिर भोर का शुकवा तारा, इनमें कोई भी नहीं तोड़ पाता है
मन के एक छोर पर धक्कमपेल कर रहीं स्मृतियों के क्रम को
फिर चाय की चुस्की हो या अखबार की खुश्की
नीम की कड़वाहट हो या महुआ की मिठास
कहीं दूर भागना चाहता हूं लावण्या के हर अंश से
और हर कदम गिर जाता हूं उसी लावण्या के दंश से
नोट: लावण्या को आम तौर
पर ब्रह्मी कहते हैं। इसका उपयोग स्मृति शक्ति बढ़ाने के लिए किया जाता है